Wheat Farming- किसान भाइयों, अगर आप सोच रहे हैं कि गेहूं की बंपर पैदावार के लिए बस समय पर बुवाई कर देनी भर काफी है, तो यह खबर आपके लिए है। कृषि विशेषज्ञों ने साफ कहा है—गेहूं की खेती में सिर्फ बीज डालना पर्याप्त नहीं, बल्कि खड़ी फसल में उर्वरकों और सिंचाई का वैज्ञानिक प्रबंधन ही अधिक उत्पादन की कुंजी है। और सबसे बड़ी गलती जो किसान कर रहे हैं? वो है यूरिया का गलत समय पर छिड़काव। अब सवाल है—क्या आपकी भी यही गलती है?
यूरिया का गलत इस्तेमाल: पूरी खाद बुवाई पर डालना बड़ी भूल
अक्सर देखा गया है कि किसान बुवाई के वक्त फॉस्फोरस और पोटाश तो ठीक से डालते हैं, लेकिन यूरिया के प्रबंधन में चूक जाते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि नाइट्रोजन का पूरा प्रयोग बुवाई के समय नहीं करना चाहिए। इससे नुकसान होता है—पहला, खाद वाष्पीकरण से उड़ जाती है; दूसरा, पौधे को जरूरत के हिसाब से नहीं मिल पाती।
तो क्या करें? नई रिसर्च साफ कहती है—पहली और दूसरी सिंचाई के वक्त यूरिया को आधी-आधी मात्रा में बांटकर दें। यानी बुवाई पर डेढ़ बोरी की जगह, पहली सिंचाई पर इतना और दूसरी पर बाकी। इससे खाद सीधे जड़ों तक पहुंचती है और वाष्पीकरण से होने वाले नुकसान में कमी आती है। और फायदा? उपज में 5 से 10 प्रतिशत तक बढ़ोतरी संभव है।
तकनीक का दखल: पत्ती का रंग बताएगा खाद की मात्रा
अब बात करते हैं तकनीक की। आधुनिक खेती के दौर में किसान [GLCC] और न्यूट्रिएंट एक्सपर्ट सॉफ्टवेयर जैसे टूल्स का इस्तेमाल कर रहे हैं। ये उपकरण पत्तियों का रंग और पौधे की स्थिति देखकर बता देते हैं कि फसल को वास्तव में कितनी नाइट्रोजन की जरूरत है।
इसका सीधा फायदा? किसान अनावश्यक खाद डालने से बच जाते हैं। रिसर्च कहती है कि इससे प्रति हेक्टेयर 20-25 किलोग्राम यूरिया की बचत की जा सकती है। यानी एक बीघे में लगभग 8-10 किलो। और जब बचत होगी, तो लागत घटेगी और मुनाफा बढ़ेगा। लेकिन सवाल ये है—कितने किसान इस तकनीक को अपना रहे हैं? आंकड़े चिंताजनक हैं।
रसायनिक खाद का ज़हर: मिट्टी बचाने का प्लान
विशेषज्ञ एक और चेतावनी दे रहे हैं। सिर्फ रासायनिक खादों पर निर्भरता मिट्टी की क्वालिटी खत्म कर रही है। इसलिए समेकित उर्वरक प्रबंधन जरूरी है। इसमें रासायनिक खादों के साथ गोबर खाद, वर्मी कंपोस्ट और हरी खाद का संतुलित उपयोग शामिल है।
लेकिन अफसोस, ज्यादातर किसान अभी भी सिर्फ यूरिया, डीएपी और पोटाश पर निर्भर हैं। और जब मिट्टी की सेहत बिगड़ती है, तो फसल की उत्पादकता अपने आप घटने लगती है। ये है असली गेम—आज बचाने का नाम पर बचत, कल नुकसान के रूप में भुगतान।
पानी की बर्बादी का बड़ा खेल: बूंद-बूंद से फसल
अब आते हैं सिंचाई पर। परंपरागत फ्लड इरिगेशन में पानी की भारी बर्बादी होती है। कई बार अधिक नमी से फसल पीली पड़ने लगती है। इसके विपरीत, फव्वारा (स्प्रिंकलर) विधि न सिर्फ पानी की 40-50% बचत करती है, बल्कि इससे दाने भी अधिक भराव वाले और चमकदार बनते हैं।
| सिंचाई तकनीक | पानी उपयोग दक्षता | फायदा |
|---|---|---|
| परंपरागत फ्लड | 30-40% | अधिकतर पानी बर्बाद |
| फव्वारा (स्प्रिंकलर) | 60-70% | 40-50% बचत |
| सूक्ष्म सिंचाई (ड्रिप) | 80-90% | जल scarcity के लिए वरदान |
जल scarcity वाले क्षेत्रों के लिए [Micro Irrigation] वरदान मानी जा रही है। लेकिन अभी भी राजस्थान के ज्यादातर खेतों में फ्लड सिंचाई ही दिखती है।
सरकारी सब्सिडी: ‘प्रति बूंद, अधिक फसल’ का मंत्र
केंद्र सरकार की [PM Krishi Sinchayee Yojana] का उद्देश्य साफ है—”प्रति बूंद, अधिक फसल” को बढ़ावा देना। इसके तहत किसानों को ड्रिप और स्प्रिंकलर लगाने पर भारी सब्सिडी उपलब्ध कराई जा रही है।
लेकिन क्या हो रहा है? किसान या तो इस योजना से अनजान हैं, या फिर पेपर वर्क में उलझकर हार मान रहे हैं। जबकि सब्सिडी 50% से लेकर 80% तक है। मतलब साफ—सरकार पैसे दे रही है, लेकिन किसान लेने से कतरा रहे हैं।
एक्सपर्ट फॉर्मूला: बंपर पैदावार का सीधा गणित
तो आखिरकार बात आती है एक्सपर्ट फॉर्मूले पर। कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि संतुलित खाद, [Soil Testing] आधारित उर्वरक प्रबंधन और आधुनिक सिंचाई तकनीकों का समन्वित उपयोग ही गेहूं उत्पादन को लाभदायक बनाने का सबसे प्रभावी तरीका है।
इन वैज्ञानिक उपायों को अपनाकर किसान कम लागत में अधिक और बेहतर क्वालिटी का उत्पादन हासिल कर सकते हैं। मतलब यह कि बंपर पैदावार के लिए जादू नहीं, विज्ञान काम आता है। और विज्ञान वहीं काम आता है, जहां सही समय पर सही फैसले लिए जाएं।
अब सवाल आपके ऊपर है—क्या आप अपनी गेहूं की फसल में ये बदलाव लाएंगे?
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