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Sugarcane Price: कर्नाटक में किसानों को नहीं मिल रही गन्ने की सही कीमत, भेदभाव का आरोप

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Sugarcane Price जब पूरे कर्नाटक में गन्ना किसान अपनी फसल का उचित दाम मांग रहे थे, तब राज्य सरकार ने हस्तक्षेप करके कीमत तय करने का वादा किया था। लेकिन अब दक्षिण कर्नाटक के गन्ना उत्पादक इलाकों से एक बड़ी शिकायत सामने आ रही है। Karnataka sugarcane crisis के तहत काम कर रहे कर्नाटक प्रांत रायथा संघ (KRS) और कर्नाटक गन्ना किसान संघ (KSFA) का आरोप है कि राज्य सरकार द्वारा तय की गई कीमत का लाभ सिर्फ कागजों तक सीमित है। धरातल पर, मैसूर-मांड्या-चामराजनगर जैसे प्रमुख जिलों के किसानों को प्रति टन लगभग ₹1,000 का चूना लग रहा है।

दरअसल, जब संघर्ष तेज हुआ तो सरकार ने कटाई और ट्रांसपोर्टेशन का खर्च घटाकर गन्ने का दाम ₹3,200 से ₹3,300 प्रति टन तय किया था। लेकिन दक्षिणी कर्नाटक की चीनी मिलें इस सिस्टम को अपना नहीं रहीं। KPRS के जिला सचिव जगदीश सूर्या ने मीडिया से बात करते हुए बताया कि मिलें उल्टा इस दाम से भी कटाई और ट्रांसपोर्टेशन का चार्ज काट रही हैं, जिससे किसानों को भारी नुकसान झेलना पड़ रहा है।

मुख्य बिन्दु

दक्षिण के किसानों पर ₹1,000 प्रति टन का अन्याय

मामला साफ है। राज्य सरकार ने कीमत तो तय कर दी, लेकिन उसके पालन पर कोई पैनी नजर नहीं रखी। मैसूर, मांड्या, चामराजनगर और हासन जैसे जिलों में गन्ना उगाने वाले किसानों को फसल का भुगतान नियमों के मुताबिक नहीं मिल रहा।

जगदीश सूर्या के मुताबिक, “दक्षिणी कर्नाटक इलाके के गन्ना किसानों को राज्य सरकार द्वारा तय की गई कीमत नहीं दी जा रही है। इसके चलते किसानों को लगभग ₹1,000 प्रति टन का नुकसान हो रहा है।”

अब सवाल ये उठता है कि आखिर किसानों को नुकसान कैसे हो रहा है? दरअसल, कटाई और ट्रांसपोर्टेशन का खर्च जो ₹900 से ₹1,300 प्रति टन तक होता है, वह किसानों के सिर पर आ रहा है। जबकि सरकार की गाइडलाइन साफ कहती है कि यह खर्च घटाकर ₹3,200 से ₹3,300 प्रति टन का भुगतान होना चाहिए। लेकिन मिलें ऐसा नहीं कर रहीं।

FRP और चीनी रिकवरी का विवादित कनेक्शन

Sugar recovery rate को लेकर किसानों की दूसरी बड़ी आपत्ति है। KPRS ने फेयर एंड रिम्यूनरेटिव प्राइस (FRP) को चीनी रिकवरी से जोड़ने पर सीधा सवाल खड़ा किया है।

सूर्या ने बताया कि पिछले दो दशकों में चीनी रिकवरी की दर में खासा उछाल आया है। साल 2000 में जहां यह 8.5% थी, वहीं 2022 में बढ़कर 10.25% हो गई। लेकिन इस बढ़ोतरी का फायदा किसानों को नहीं, बल्कि मिलों को मिल रहा है।

“हर एक परसेंट की बढ़ोतरी से किसानों को मिलने वाली कीमत लगभग ₹346 प्रति टन कम हो जाती है,” सूर्या ने समझाया। मतलब साफ है – जितनी ज्यादा रिकवरी, उतना कम दाम। लेकिन असलियत ये है कि राज्य में उगाई जाने वाली ज्यादातर गन्ने की किस्मों से एक जैसी ज्यादा रिकवरी नहीं होती। ऐसे में इस सिस्टम से किसानों को सिर्फ नुकसान ही होता है।

दूसरे राज्यों में मिल रही बेहतर कीमत

किसानों का गुस्सा इसलिए भी जायज है क्योंकि देश के अन्य हिस्सों में गन्ना किसानों को ज्यादा दाम मिल रहे हैं। KPRS और KSFA के मुताबिक, हरियाणा और पंजाब में किसानों को ₹4,000 प्रति टन से ज्यादा का भुगतान होता है। गुजरात में तो किस्म के आधार पर यह दाम ₹4,000 से ₹6,000 प्रति टन तक जाता है। महाराष्ट्र में भी ₹3,650 प्रति टन तय किया गया है।

लेकिन दक्षिण कर्नाटक के किसानों के साथ सौतेला व्यवहार हो रहा है। यहां तो कीमत तय होने के बावजूद मिलें अपनी मनमानी कर रही हैं। ऐसे में किसानों का सवाल है कि जब दूसरे राज्यों में उचित दाम मिल सकता है, तो कर्नाटक में क्यों नहीं?

किसानों की साफ मांगें

संघों ने सरकार के सामने कुछ साफ प्रस्ताव रखे हैं। पहली मांग ये कि गन्ने की कीमत कटाई और ट्रांसपोर्टेशन का खर्च घटाकर ₹3,200 प्रति टन या फिर यह खर्च मिलाकर ₹4,000 प्रति टन तय किया जाए।

दूसरी बड़ी मांग है कि कीमत तय करने में चीनी रिकवरी के कानून को खत्म किया जाए। किसानों का कहना है कि यह सिस्टम पूरी तरह से उनके खिलाफ है।

तीसरे, किसानों ने अलग-अलग जिलों में लैब खोलने की मांग की है ताकि वो खुद चीनी की रिकवरी रेट की जांच कर सकें।

चौथी मांग गन्ने के बायोप्रोडक्ट्स से होने वाले मुनाफे में हिस्सेदारी की है। किसानों का तर्क है कि वो फसल उगाते हैं, लेकिन मिलें सिर्फ चीनी से ही नहीं, बायोप्रोडक्ट्स से भी मुनाफा कमा रही हैं। ऐसे में किसानों को भी इसमें हिस्सा मिलना चाहिए।

सरकार को क्यों लेना चाहिए संज्ञान?

Sugarcane farmers protest का यह मुद्दा सिर्फ कीमतों तक सीमित नहीं है। यह किसानों के विश्वास का सवाल है। जब सरकार कीमत तय करती है, लेकिन उसे लागू नहीं करवाती, तो किसानों का भरोसा टूटता है।

पूरे भारत में गन्ने की खेती की लागत बढ़ रही है। Agriculture cost inflation को देखते हुए KPRS और KSFA ने मांग की है कि FRP में इस बढ़ोतरी को दर्शाया जाए और देश के अलग-अलग हिस्सों की मौजूदा कीमतों के हिसाब से तय किया जाए।

अगर सरकार ने जल्द एक्शन नहीं लिया, तो यह विवाद बड़े आंदोलन का रूप ले सकता है। मैसूर, मांड्या जैसे इलाके पहले से ही किसान आंदोलनों के लिए जाने जाते हैं। ऐसे में सरकार को तुरंत इस मुद्दे का समाधान निकालना चाहिए।

नमस्ते! मैं जगत पाल ई-मंडी रेट्स का संस्थापक, बीते 7 साल से पत्रकारिता कर रहा हूं। मुझे खेती-किसानी, मंडी भाव की जानकारी में महारथ हासिल है । यह देश का पहला डिजिटल कृषि न्यूज़ प्लेटफॉर्म है, जो बीते 5 सालों से निरन्तर किसानों के हितों में कार्य कर रहा है। किसान साथियों ताजा खबरों के लिए आप हमारे साथ जुड़े रहिए। धन्यवाद

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